बुधवार, 18 जुलाई 2018

पिता

सुख की छांया सौंप सदा ही,
 जेठ धूप से तपे पिता ।
कंटक पथ सी राहों में ,
नर्म बिछौने से बिछे पिता ।

जी कर अपने ही संतापों में , 
धैर्य सदा ही देते ।
 टकराकर हर संकट से ,
 संकट सारे हर लेते ।

 मेरे एक सुख की ख़ातिर,
 संघर्षों से सजे पिता ।
बांट प्रसाद में सुख अपने,
 सारे सुख तजे पिता ।

सपने जब वो कुछ गढ़ लेते,
 सजल नयन भर लेते ,
मेरे एक सपने की ख़ातिर ,
अपने सपने तज देते ।

सींच रहे अमृत रस ,
कंठ हलाहल थाम पिता ।
सुख की छांया सौंप सदा ही ,
जेठ धूप से तपे पिता ।

 चाह नही कोई फिर भी,
  वो ना चाहें कैसे ,
जीते जिसकी ख़ातिर वो,
 पा जाए वो कुछ कैसे ।

बस एक सोच यही है,
 लगन यही है ।
जीवन का उनके ,
एक मुक़ाम यही है ।

रहकर "निश्चल" चलते ,
राहों पर गतिमान पिता ।
तोड़ तोड़कर तारे अम्बर से ,
झोली मेरी भरें पिता ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

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