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मत्तगयन्द सवैया छंद
वो जर जर काया उसकी ,
फिर भी शिरा रक्त धार बही है ।
दौड़ रहीं है साँसे उसकी ,
नाता काया संग जोड़ रहीं है ।
चुप्पी साधें तकतीं कुछ न कुछ ,
शून्य निगाहें खोज रहीं है ।
याद नहीं अब कुछ यादों में,
उसको कोई बोध नही है ।
मौन साध लिया है साधक जैसे,
होंठो पे अब बोल नहीं है ।
क्या खोया क्या पाया है ,
इसका भी अब शोक नही है ।
सो जाएगा कब चिर निंद्रा में ,
उस पल का भी खेद नही है ।
हो जाएगा तब पूर्ण ब्रम्ह सा,
उसको इंतज़ार यही है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"..
मत्तगयन्द सवैया छंद
वो जर जर काया उसकी ,
फिर भी शिरा रक्त धार बही है ।
दौड़ रहीं है साँसे उसकी ,
नाता काया संग जोड़ रहीं है ।
चुप्पी साधें तकतीं कुछ न कुछ ,
शून्य निगाहें खोज रहीं है ।
याद नहीं अब कुछ यादों में,
उसको कोई बोध नही है ।
मौन साध लिया है साधक जैसे,
होंठो पे अब बोल नहीं है ।
क्या खोया क्या पाया है ,
इसका भी अब शोक नही है ।
सो जाएगा कब चिर निंद्रा में ,
उस पल का भी खेद नही है ।
हो जाएगा तब पूर्ण ब्रम्ह सा,
उसको इंतज़ार यही है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"..
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