शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

तलाश

121  212  121  211 12

तलाश की तलाश को जरूरत रही ।
तलाश की यही यक़ीन सूरत रही ।

तलाशता रहा यक़ीन आप खुद जो ,
निग़ाह की यही हताश कूबत रही ।
  
  ख़फ़ा नही यहां रहा इरादतन जो ,
  अज़ाब सी यहां मिज़ाज सूरत रही ।

   भरे कभी सुकून से बुतों पर जो ,
   अश्क़ सभी रंग निखार मूरत रही ।
    
   ढंकी सभी निग़ाह आज हिजाब जो ,
   हुस्न अदा फ़िज़ा बिखेर नियत रही ।

 नक़ाब में निग़ाह को छुपाकर चला ,
 निग़ाह को निग़ाह की यु चाहत रही ।

   मिटा रहा निशान आदमीयत जो ,
   नही उसे ईमान आज आदत रही ।

 मिला तभी यहीं मिला जुदा कब मैं ,
चला नही यही मिज़ाज "निश्चल" यही ।


..विवेक दुबे"निश्चल"@.

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