शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

खो गए

खो गए निग़ाह से अहसास दे कर ।
रात के साथ दिन की आस दे कर ।

 खोजता रहा क़तरा क़तरा वो , 
 जो ग़ुम हुआ आँख से खो कर ।

  ना मिल सका समंदर से वो दरिया ,
  आया था बड़ी दूर से जो बह कर ।

  वो चलता था उजलों के साये में ,
  खा बैठा रोशनियों से वो ठो कर ।

 हंसता ही रहा हर हाल पर जो ,
 देखता है आज अब वो रो कर ।

"निश्चल" ना चल रहा पर और आंगे ,
 मंजिल मिले नही राह को खो कर ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@.
Blog post 17/8/18

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