गुरुवार, 16 अगस्त 2018

जीवन क्रम

काटते एक दिन उस शाखों को ।
थामें थीं जो एक दिन गुलाबों को ।
छोड़ गए जो फूल बहारों को ।
क्यों सहजें उन सुनी शाखों को 

फिर आएगी एक दिन कोंपल नई ,
पाएगी जो स्नेहिल फुहारों को।
छाएगी फिर डाली कलि कलि ,
चूमेगी भँवरों के रूखसरों को ।

फिर डोलें भँवरे गुजित मन से ,
छूने फूलों के अहसासों को ।
 फिर छू लेगी डाली डाली ,
प्रीत सजी वसंत बहारों को ।

चलता क्रम बार बार प्रति बार यही ,
जीवन के भी इन बागानों में ।
आते जाते झड़ जाते धूल धरा हो जाते,
फिर छा जाते आंगे आती बहारों में ।

सत्य नियति सत्य प्रकृति ,
जीवन बसता हर अंधियारों में ।
क्रम चलता निकल गहन गर्भ से,
फिर खिलता इन उजियारों में ।


विवेेेक दुबे "निश्चल"@
डायरी 5(85)

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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