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अब तो तम भी हारा है,
धुंधले से अंधियारों से ।
सावन भी भींग रहा है ,
शुष्क पड़ी फुहारों से ।
दिनकर ही हरता है ,
हर दिन अब दिन को ।
साँझे तडफे अब ,
अपनी ही रात मिलन को ।
आभित नही नव आभा,
अब अपने उजियारों से ।
डरता है मुंसिफ़ अब तो ,
अपने पहरेदारों से ।
मचान खड़ा हिलता है ,
अपने ही आज सहारों से ।
टूट रहा देश कदम कदम ,
जात धर्म के नारों से ।
सत्ता की ख़ातिर खाते कसमें ,
मंदिर मस्ज़िद गुरुद्वारों में ।
नित निज शीश सजाते,
निज स्वार्थ के हारों में।
प्राण गंवाते सैनिक घाटी में ,
गद्दारों की घातों से ।
बहलाते हो कुछ पल को ,
अमर शहीद के नारों से ।
मस्त हुए सत्ता के मद में ,
सजा रहे नित नए श्रृंगारों को।
पूछो कुछ उन माताओं से ,
खोया जिनने अपने लालों को ।
लाज नही तनिक अब भी,
उलझे बस नारों में ।
कब जाएगा जन कश्मीर का,
अपनी छोड़ी बहारों में ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
अब तो तम भी हारा है,
धुंधले से अंधियारों से ।
सावन भी भींग रहा है ,
शुष्क पड़ी फुहारों से ।
दिनकर ही हरता है ,
हर दिन अब दिन को ।
साँझे तडफे अब ,
अपनी ही रात मिलन को ।
आभित नही नव आभा,
अब अपने उजियारों से ।
डरता है मुंसिफ़ अब तो ,
अपने पहरेदारों से ।
मचान खड़ा हिलता है ,
अपने ही आज सहारों से ।
टूट रहा देश कदम कदम ,
जात धर्म के नारों से ।
सत्ता की ख़ातिर खाते कसमें ,
मंदिर मस्ज़िद गुरुद्वारों में ।
नित निज शीश सजाते,
निज स्वार्थ के हारों में।
प्राण गंवाते सैनिक घाटी में ,
गद्दारों की घातों से ।
बहलाते हो कुछ पल को ,
अमर शहीद के नारों से ।
मस्त हुए सत्ता के मद में ,
सजा रहे नित नए श्रृंगारों को।
पूछो कुछ उन माताओं से ,
खोया जिनने अपने लालों को ।
लाज नही तनिक अब भी,
उलझे बस नारों में ।
कब जाएगा जन कश्मीर का,
अपनी छोड़ी बहारों में ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
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