बुधवार, 15 अगस्त 2018

तम भी हारा है

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अब तो तम भी हारा है,
 धुंधले से अंधियारों से ।

सावन भी भींग रहा है ,
 शुष्क पड़ी फुहारों से ।

 दिनकर ही हरता है ,
 हर दिन अब दिन को ।

 साँझे तडफे अब ,
 अपनी ही रात मिलन को ।

आभित नही नव आभा,
अब अपने उजियारों से ।

 डरता है मुंसिफ़ अब तो ,
 अपने पहरेदारों से ।

 मचान खड़ा हिलता है ,
 अपने ही आज सहारों से ।

 टूट रहा देश कदम कदम ,
  जात धर्म के नारों से ।

सत्ता की ख़ातिर खाते कसमें ,
  मंदिर मस्ज़िद गुरुद्वारों में ।

नित निज शीश सजाते,
 निज स्वार्थ के हारों में। 

प्राण गंवाते सैनिक घाटी में ,
 गद्दारों की घातों से ।

बहलाते हो कुछ पल को ,
अमर शहीद के नारों से ।

 मस्त हुए सत्ता के मद में ,
सजा रहे नित नए श्रृंगारों को।

पूछो कुछ उन माताओं से ,
खोया जिनने अपने लालों को ।

लाज नही तनिक अब भी,
 उलझे बस नारों में ।

कब जाएगा जन कश्मीर का,
 अपनी छोड़ी बहारों में ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..


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