वो मुश्किलों , की रात थी।
मंजिले, आस पास थीं ।
चलता, रहा मैं भोर तक ,
मुझे, रास्तों की तलाश थी ।
खो गया भोर के प्रकाश में ,
करती अचंभित हर बात थी ।
जहां रास्ते थे सामने मेरे '
हर राह पे, कुटिल चाह थी ।
चलता रहा, मैं सोचता रहा ,
इससे तो बेहतर, वो रात थी ।
पसरा था तिमिर, हर और जहां ,
अपने साये की भी, ना कोई जात थी ।
..... विवेक दुबे "निश्चल"@
डायरी 5(86)
Blog post 17/8/18
मंजिले, आस पास थीं ।
चलता, रहा मैं भोर तक ,
मुझे, रास्तों की तलाश थी ।
खो गया भोर के प्रकाश में ,
करती अचंभित हर बात थी ।
जहां रास्ते थे सामने मेरे '
हर राह पे, कुटिल चाह थी ।
चलता रहा, मैं सोचता रहा ,
इससे तो बेहतर, वो रात थी ।
पसरा था तिमिर, हर और जहां ,
अपने साये की भी, ना कोई जात थी ।
..... विवेक दुबे "निश्चल"@
डायरी 5(86)
Blog post 17/8/18
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें