शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

मुश्किलों की रात

वो मुश्किलों , की रात थी।
मंजिले, आस पास थीं ।

चलता, रहा मैं भोर तक ,
मुझे, रास्तों की तलाश थी ।

खो गया भोर के प्रकाश में ,
करती अचंभित हर बात थी ।

जहां रास्ते थे सामने मेरे '
हर राह पे, कुटिल चाह थी ।

चलता रहा, मैं सोचता रहा ,
इससे तो बेहतर, वो रात थी ।

पसरा था तिमिर, हर और जहां ,
अपने साये की भी, ना कोई जात थी ।

..... विवेक दुबे "निश्चल"@
डायरी 5(86)
Blog post 17/8/18

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