उसने जो देखा निग़ाह से ।
सब छिन गया जुबां से ।
ख़ामोश हुए अल्फ़ाज़ भी ,
होकर ख़ामोश निग़ाह के ।
बे-लफ्ज़ हुआ रिंद भी ,
आकर उस मयकदा से ।
न थी नज़्र मय फिर भी ,
मदहोश हुआ निग़ाह से ।
खेलकर जज़्बात से भी ,
इख़्तियार थे वो वफ़ा से ।
उसने जो देखा निग़ाह से ।
सब छिन गया जुबां से ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
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