रविवार, 1 अप्रैल 2018

अब तो आँख भी

 अब तो आँख आँख नीर बहाती है ।
 ग़म के बादल से छाई अँधियारी है ।

टूट रहीं है सीमा पर डोरे जीवन की ,
 दुश्मन की गोली चुपके से आ जाती है ।

 राख हुए सपने यौवन मन के ,
 डिग्री को दीमक खा जाती है ।

 अहं भाव के मकड़ जाल में ,
मंदिर मस्ज़िद उलझीं बेचारी हैं ।

 लिपट रहे अँधियारे उजियारों से ,
 अपनो की अपनो से सौदेदारी है ।

  गहन निशा हर दिन कुंठाओं की  ,
  दिनकर को भी ढँक जाती है ।

 राह नही सूझे कोई अब तो  ,
 राहें राहों में उलझी जाती हैं ।

 तारा भी न चमके भुंसारे का ,
 निशा गहन की ऐसी सरदारी है ।


 अब तो आँख आँख  ...

 ..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

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