बुधवार, 4 अप्रैल 2018

"निश्चल" जलधि मचल रहा था

साया मचल रहा था ।
ज़िस्म पिघल रहा था ।

        शबनम की चाह में ,
         चाँद जल रहा था ।

  टूटा सितारा आसमाँ से ,
  ज़मीं को मचल रहा था । 

          वो हालात थे जाने कैसे ,
         वक़्त वक़्त को छल रहा था ।

  परछाइयाँ भी अब तो ,
   सूरज निगल रहा था ।

             वो रात थी घनेरी , 
             साया भी गुल रहा था ।
             
    समंदर था साहिल की चाह में ,
   "निश्चल" जलधि बदल रहा था ।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@....
      रायसेन (म. प्र.)

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