बुधवार, 4 अप्रैल 2018

मुक्तक


दरमियाँ ज़मीं आसमाँ कुछ न होता ।
न बैचेन धरती न आसमाँ ही रोता ।
 न  दूर क्षितिज मिलन गुमां होता ।
 लिपट जमीं के दामन चैन से सोता ।
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 अपनी खुशी कहाँ से लाऊँ ।
  कदम कदम ठोकर खाऊँ ।
   अपनो की दुनियाँ में ही ,
    गैरो सा मैं  नजर आऊँ ।
 ...
खुद को पुकारा खुद ने ।
 खुद को चाहा यूँ खुद ने ।
 भुला अदावतें दुनियाँ की ,
 खुद को भुलाया खुद ने ।
.....
मेरी ख़ातिर खुदा से टकराया वो ।
 इस तरह नाख़ुदा मुझे बनाया वो ।
पुकारता हूँ उसे हर साँस साँस ।
 धड़कता अहसास साँस साँस वो।
....
कुछ हम यूँ उनके हवाले रहे ।
निग़ाह नुक़्स निकाले न गए ।
 दुआओं के असर उस नज़्र में ,
 इल्म ताबीज़ गले डाले न गए ।
 ...
  लफ्ज़ वो दुआ सा क्यों लगता है ।
  मुझे वो ख़ुदा सा क्यों लगता हैं ।
  आता जो गुजरकर दूर से पास मेरे ,
  लफ्ज़ वो ठहरा सा क्यों लगता है ।
....
खुशी न मिली, रंज के बाजार में ।
 लूटते हैं हम ,   यूँ ही बेकार में ।
....
 न सजाओ ख़्वाब वफाओ के ।
 ख़्वाब मुसाफ़िर नही सुबह के ।
 ...
शिकायत शराफत बनी अब तो ।
 अदावत इनायत बनी अब तो ।
 मिलते नही मुकाम रास्तो के ,
 रास्ते ही मंज़िल बनी अब तो ।
....
 यह रात संवर जाएगी ।
 वफ़ा फिर बिखर जाएगी।
 चाँद ढलेगा सुबह तले ,
 तमन्ना मन ममोश जाएगी ।
....
हवा राख में उड़ा देगी ।
 नमी ख़ाक में मिला देगी ।
 हो जाएंगे रुख़सत जिस दिन,
 दुनियाँ पल में भुला देगी ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

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