रविवार, 1 अप्रैल 2018

भोला बचपन

बन्द हुए आज किताबों में ।
आते भी नही अब ख़्वाबों में ।
भोले बचपन के वो छूटे नाते । 
 मिलते हैं अब बस यादों में ।

  भोर भए चिड़ियों सँग ,
  जेठ मास के उजियारों में,
  माघ मास के जाड़ो में ,
   बंद हुए लिहाफों में ।

 भोले बचपन की एक कहानी थी ।

 दीवानी सी परियों की रानी सी ।
 शादी रचती राजा और रानी सी ।
 भोले पन मन की वो अभिलाषा ।
 ज्ञात नही  शादी की  परिभाषा ।

 कितने वो भोले भाले पल ,
 रूठे खुश होते अगले पल ।
 गुड़िया की शादी होती थी ।
 गुड्डे से  ब्याही  होती थी  ।

आती वो खुद सज धज कर ,
जो गुड़िया अपनी लाई होती थी ।
मैं भी खूब अकड़ रहा होता ,
 क्योकि गुड्डा तो मेरा होता ।

 धूम धाम से फिर शादी होती।
 दुल्हन जैसी वो शरमाई होती ।
 मैं भी खूब अकड़ रहा होता ।
 गुड्डा जो हाथ पकड़ रहा होता ।

जाना अब खुद ब्याहे हम तब ,
 यह शादी आखिर क्या होती ।
 उस भोलेपन की डौली उठती ,
 नव जीवन की तैयारी होती ।

 छोड़ भोले पन के पीहर को ,
 गुड़िया गुड्डे सँग इस जीवन के,
 कपट महल में आ बस जाती ।
 अब न बो मुस्कुराते न इतराते ,
 "निश्चल"भाव से साथ निभाते ।

 उस भोले बचपन के ,
 छूटे नाते भोले पन से ।
 मिलते न वो नाते अब,
 दूल्हा रूठा दुल्हन से ।

 देखूँ दर्पण अब भी बनठन के ।
 जुड़ा हुआ हूँ यूँ बचपन से ।
  यह झुर्रियाँ नही उम्र की,
 यह अनबन भोले बचपन से ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@.....




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