बन्द हुए आज किताबों में ।
आते भी नही अब ख़्वाबों में ।
भोले बचपन के वो छूटे नाते ।
मिलते हैं अब बस यादों में ।
भोर भए चिड़ियों सँग ,
जेठ मास के उजियारों में,
माघ मास के जाड़ो में ,
बंद हुए लिहाफों में ।
भोले बचपन की एक कहानी थी ।
दीवानी सी परियों की रानी सी ।
शादी रचती राजा और रानी सी ।
भोले पन मन की वो अभिलाषा ।
ज्ञात नही शादी की परिभाषा ।
कितने वो भोले भाले पल ,
रूठे खुश होते अगले पल ।
गुड़िया की शादी होती थी ।
गुड्डे से ब्याही होती थी ।
आती वो खुद सज धज कर ,
जो गुड़िया अपनी लाई होती थी ।
मैं भी खूब अकड़ रहा होता ,
क्योकि गुड्डा तो मेरा होता ।
धूम धाम से फिर शादी होती।
दुल्हन जैसी वो शरमाई होती ।
मैं भी खूब अकड़ रहा होता ।
गुड्डा जो हाथ पकड़ रहा होता ।
जाना अब खुद ब्याहे हम तब ,
यह शादी आखिर क्या होती ।
उस भोलेपन की डौली उठती ,
नव जीवन की तैयारी होती ।
छोड़ भोले पन के पीहर को ,
गुड़िया गुड्डे सँग इस जीवन के,
कपट महल में आ बस जाती ।
अब न बो मुस्कुराते न इतराते ,
"निश्चल"भाव से साथ निभाते ।
उस भोले बचपन के ,
छूटे नाते भोले पन से ।
मिलते न वो नाते अब,
दूल्हा रूठा दुल्हन से ।
देखूँ दर्पण अब भी बनठन के ।
जुड़ा हुआ हूँ यूँ बचपन से ।
यह झुर्रियाँ नही उम्र की,
यह अनबन भोले बचपन से ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
आते भी नही अब ख़्वाबों में ।
भोले बचपन के वो छूटे नाते ।
मिलते हैं अब बस यादों में ।
भोर भए चिड़ियों सँग ,
जेठ मास के उजियारों में,
माघ मास के जाड़ो में ,
बंद हुए लिहाफों में ।
भोले बचपन की एक कहानी थी ।
दीवानी सी परियों की रानी सी ।
शादी रचती राजा और रानी सी ।
भोले पन मन की वो अभिलाषा ।
ज्ञात नही शादी की परिभाषा ।
कितने वो भोले भाले पल ,
रूठे खुश होते अगले पल ।
गुड़िया की शादी होती थी ।
गुड्डे से ब्याही होती थी ।
आती वो खुद सज धज कर ,
जो गुड़िया अपनी लाई होती थी ।
मैं भी खूब अकड़ रहा होता ,
क्योकि गुड्डा तो मेरा होता ।
धूम धाम से फिर शादी होती।
दुल्हन जैसी वो शरमाई होती ।
मैं भी खूब अकड़ रहा होता ।
गुड्डा जो हाथ पकड़ रहा होता ।
जाना अब खुद ब्याहे हम तब ,
यह शादी आखिर क्या होती ।
उस भोलेपन की डौली उठती ,
नव जीवन की तैयारी होती ।
छोड़ भोले पन के पीहर को ,
गुड़िया गुड्डे सँग इस जीवन के,
कपट महल में आ बस जाती ।
अब न बो मुस्कुराते न इतराते ,
"निश्चल"भाव से साथ निभाते ।
उस भोले बचपन के ,
छूटे नाते भोले पन से ।
मिलते न वो नाते अब,
दूल्हा रूठा दुल्हन से ।
देखूँ दर्पण अब भी बनठन के ।
जुड़ा हुआ हूँ यूँ बचपन से ।
यह झुर्रियाँ नही उम्र की,
यह अनबन भोले बचपन से ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
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