व्यथा उस अंतिम पड़ाव की ।
चाह जिन्हें अपनो के चाह की।
कर हवन सारा यौवन तन,
स्वप्न सलोनी हर बात की ।
अभिलाषा बस संतानों की ,
सुगम प्रगति की राहों की ।
लगा दांव पर सब कुछ ,
जीवन की नही परवाह की ।
बीत गया तन आया चौथा पन,
एक दृष्टि बची बस आस की ।
बिसार दिया उस को अब,
भूले सब माया उस त्याग की ।
शायद वो नियति थी इनके कल की ,
एक यह नियति है इनके आज की ।
चिंता है बस अब तो उनको ,
उनके कल आते श्राद्ध की ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@...
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