सोमवार, 9 अप्रैल 2018

धूप विरह की

यह धूप विरह की ,
 श्यामल तन करती ।
  नयन विलोकत गोरी ,
   प्रियतम मन हरती ।
  
  हृदय सेज विराजे साजन ,
   सजनी स्वप्न सलोने गढ़ती ।
  उड़ जा रे कागा मुंडेर से ,
 यादों में रात नही अब कटती ।

  आ जाएं अब साजन मेरे ,
   नयन से आस बरसती ।
   जेठ मास की तप्त धरा ,
    धरती भी वर्षा को तरसी ।
     
    यह धूप बिरह की ,....
   ... विवेक दुबे"निश्चल"@....

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