निगाहों निगाहों से शरारत मेरी।
आज उनसे कुछ अदावत मेरी।
बिखरी हँसी लब इनायत हुई ,
रूठ कर मनाने की चाहत मेरी ।
बिखरे ख़्वाब जो हक़ीकत में ।
फिर ख़्वाब सजाने चाहत मेरी।
जीतू ही हर दम क्यों मैं उससे ,
अब हार जाने की नियत मेरी।
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मुस्कुराने की चाहत नही मेरी ।
दिल से अब अदावत नही मेरी।
आते नही अश्क़ पास अब मेरे ,
बहाने की मेरी ताकत नही मेरी।
...
वफ़ा के दायरे में थी बेवफ़ाई मेरी ।
क्यों हो गई आवाद बर्वादी मेरी ।
टूटा तो न तारा फ़लक से कोई ,
क्यों आसमाँ पे निग़ाह उठी मेरी।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
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