बुधवार, 11 अप्रैल 2018

तपिश निग़ाह से

 तपिश  निग़ाह से पिघल उठे जो ।
 शाम तले चराग़ हम जल उठे जो। 

 मैं भूलता नही इस अंदाज को ।
 तुम चुपके से आते ख़्वाब जो ।

 लौट आना है एक दिन बून्द तुझे ,
 छोड़ा था समंदर-ऐ-अहसास जो ।

 चमकता है आसमाँ पे सितारा नाज से ,
 जमीं पे आएगा एक दिन हो ख़ाक जो।

 टूटता है क्यों टूटकर दुनियाँ के तानो से ,
 भरेगी दुनियाँ बाहों में वक़्त आएगा जो। 

सुकूँ न खोज तू और कि निगाहों से ,
 सुकूँ तुझे आएगा देखेगा आइना जो ।

  क्यों अक़्स किसी और का बजूद में ,
  बजूद तो बस यही"निश्चल" मैं हूँ जो ।


... विवेक दुबे"निश्चल"@...


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