गुरुवार, 12 अप्रैल 2018

तर हूँ रोशनी दिन उजालों से

खुलकर भी वो खुलते नहीं ।
 ज़ख्म दिल के पिघलते नहीं ।
 यूँ तो तन्हां है वो बहुत मगर ,
 आगाज महफ़िल में करते नही ।

 बीता है वक़्त उन्हें मनाने में ।
 दिल-ऐ-नगम उन्हें सुनाने में ।
 दफ़न कर ज़ख्म-ऐ-दिल सारे ,
 गीत खुशियों के हमे गाने में ।

 न टूटा कोई सितारा उस फ़लक से ,
 न आया काम मुराद पूरी कराने में ।
 लो छुप गया वो चाँद भी अब ,
 न रहा साथ मेरे अँधेरे मिटाने में ।

 तर हूँ रोशनी दिन उजालों में ,
 झुलसा "निश्चल" दिन के बिराने में ।
 खुलकर भी वो खुलते नही ।
 ज़ख्म दिल के पिघलते नही ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@....

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