पढ़कर उसकी ग़जल को ,
कुछ गुनगुना गया मैं ।
एक पल को उसकी ,
निगाहों में आ गया मैं ।
सख़्त लहजे थे उनके,
तल्ख़ लफ्ज़ पा गया मैं ।
रिंद तो न था मैं मगर ,
साक़ी को भा गया मैं ।
हट गए नक़ाब निगाहों के ,
नज़्र तीर खा गया मैं ।
ख़ामोश रहा उसकी,
मासूमियत की ख़ातिर ।
हँस कर उससे ,
सज़ा पा गया मैं ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
कुछ गुनगुना गया मैं ।
एक पल को उसकी ,
निगाहों में आ गया मैं ।
सख़्त लहजे थे उनके,
तल्ख़ लफ्ज़ पा गया मैं ।
रिंद तो न था मैं मगर ,
साक़ी को भा गया मैं ।
हट गए नक़ाब निगाहों के ,
नज़्र तीर खा गया मैं ।
ख़ामोश रहा उसकी,
मासूमियत की ख़ातिर ।
हँस कर उससे ,
सज़ा पा गया मैं ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
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