हारता है क्यों तू ,
वक़्त के हालात से ।
बच सका न कोई ,
वक़्त के हाथ से ।
जरा सब्र कर ,
ठहर अपने हालात पे ।
संवारेगा वक़्त फिर ,
अपने ही हाथ से ।
तपता है गुलशन ,
मौसम के मिज़ाज़ से ।
सजाता है फिर वही,
ठंडी फ़ुहार से ।
... विवेक दुबे "निश्चल"@..
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें