दिल नही कोई अब प्यास है ।
सफ़र जिंदगी भी एक आस है ।
यह मेरा बंजर ही खास है ।
पानी नही प्यास ही पास है ।
यह दृश्य राह में सूखे ठूंठों के।
आपनो से अपनो के रूठों से ।
तपता है सूरज पर चलता है ।
जलता है ढ़लता फिर निकलता है।
यह चन्दा शीतल प्यारा है ।
होता धीरे धीरे आधा है ।
तारे भी झिलमिल कब तक ?
देखो टूट रहे हैं जब तब ।
धरा घूम रही अपनी धूरी पर ।
थमी हुई है पर अपने पथ पर ।
ज़ीवन कोई कमज़ोर नही ।
पतंग वही पर ड़ोर नई ।
थमी रहेगी गगन तब तक ।
ड़ोर मढ़ी जितनी फ़िरकी पर ।
कट जाएगी फिर उड़ जाएगी ।
अनन्त गगन में खो जाएगी ।
ड़ोर नई संग फिर वापस आएगी ।
बस यही ज़िंदगी कहलाएगी ।
......विवेक दुबे"निश्चल"@....
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