शनिवार, 17 फ़रवरी 2018

बस यही ज़िन्दगी कहलाएगी ।


 दिल  नही कोई अब प्यास है ।
 सफ़र जिंदगी भी एक आस है ।

 यह मेरा बंजर ही खास है ।
 पानी नही प्यास ही पास है ।

   यह दृश्य राह में सूखे ठूंठों के।
  आपनो से अपनो के रूठों से ।

 तपता है सूरज पर चलता है ।
 जलता है ढ़लता फिर निकलता है।

 यह चन्दा शीतल प्यारा है ।
 होता धीरे धीरे आधा है ।

 तारे भी झिलमिल कब तक ?
 देखो टूट रहे हैं जब तब ।

 धरा घूम रही अपनी धूरी पर ।
 थमी हुई है पर अपने पथ पर ।

 ज़ीवन कोई कमज़ोर नही ।
 पतंग वही पर ड़ोर नई ।

 थमी रहेगी  गगन तब तक  ।
 ड़ोर मढ़ी जितनी फ़िरकी पर ।

 कट जाएगी फिर उड़ जाएगी ।
 अनन्त गगन में खो जाएगी ।

 ड़ोर नई संग फिर वापस आएगी ।
 बस यही ज़िंदगी कहलाएगी ।
      ......विवेक दुबे"निश्चल"@....

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