बुधवार, 14 नवंबर 2018

मुक्तक 541/548

541
एक परपोषित वृक्ष लता सा ।
जीवन आश्रित देह सटा सा ।
पाता पोषण कण कण से ,
अस्तित्व हीन हो रहा बचा सा ।
...542
 कागज़ स्याह करता गया।
 लफ्ज़ निग़ाह करता गया ।
 गिराकर कुछ क़तरे अश्क़ के ,
 हर्फ़ हर्फ़ गुमराह करता गया।
... 543
खोजता रहा वो किताबों में ।
मिलता नही जो मिजाजों में ।
गिरा नही क़तरा जमीं पर ,
सूखता रहा अश्क़ निग़ाहों में ।
..544
यह ख्याल रहे ख़्याल से ।
अक़्स ढ़लते रहे निग़ाह से ।
खोजते रहे रौनकें जमाने में,
फिर भी रहे तंग दिल हाल से ।
...545
कोई तो कर्ज़ चुकाईये ।
अपना भी फ़र्ज़ निभाइये ।
टूटें ना ताने बाने सौहार्द के,
सौहार्द का मर्ज़ बढ़ाइये ।
....546
आशीषों के पथ चलकर ।
लक्ष्य सदा ही मिलते है । 
 तापित मरुभूमि पर भी ,
 "निश्चल" शीतल जल मिलते हैं ।
..547
कल के सफर की ख़ातिर ।
ख़्वाब फिर मेहमान हो जाए ।
वक़्त से वक़्त की ख़ातिर ,
वक़्त से इंतकाम हो जाए ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....


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