बुधवार, 14 नवंबर 2018

मुक्तक 549/553

549
इतना ही मैं ख़ास रहा ।
 के मैं ना-ख़ास रहा ।
 लफ्ज़ के समंदर में ,
बूंद सा अहसास रहा ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@..

इतना ही मैं ख़ास रहा ।
 के मैं ना-ख़ास रहा ।
 रिश्तों की दुनियाँ में ,
 मतलब में मैं पास रहा ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@..

550
वो क्या था जब कुछ नही था ।
यह क्या है जब सब कुछ है ।
एक फ़र्क सिर्फ इतना सा ,
के बीच में सिर्फ एक कुछ है ।
... 
551
एक मिज़ाज सख़्त सा ।
ठहरा हुआ वक़्त सा ।
चला था जो मुक़म्मिल ,
थम गया शाम पस्त सा ।
.... निश्चल@...
552
चल रचते है कुछ लफ्ज़ खमोशी के ।
उठाकर कुछ अल्फ़ाज़ मदहोशी के ।
उठाकर निगाहें आज हम फुरसत से ,
लेते हैं कुछ ख़्वाब आगोश आगोशी के ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
553
ज़ीस्त जोश , बुत मचलता गया  ।
मैं हाल खुद , खुद बदलता गया ।

ढल गया , वो आसमां की कोर में ,
जो चाँद , साथ जमीं चलता गया ।
(लाइफ)
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.

डायरी 3

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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