बुधवार, 14 नवंबर 2018

मुक्तक 564/567

564
एक उम्र तराश तलाशती रही ।
जिंदगी कुछ यूँ ख़ास सी रही ।
कटता रहा सफ़र सहर के वास्ते ,
सँग जुगनुओं के स्याह रात सी रही ।
... 565
तुम कुछ लिखते क्यों नही ।
लफ्ज़ लफ्ज़ बिकते क्यों नही ।
लगाकर जरा सा मोल अपना ,
निग़ाह में तुम टिकते क्यों नहीं ।
...566
मैं कभी कुछ लिख सका नही ।
लफ्ज़ लफ्ज़ बिक सका नही ।
लगाकर मैं कभी मोल अपना ,
निग़ाह में कभी टिक सका नहीं ।
...567
मैं धीरे धीरे बदलता गया   ।
 एकाकी जब चलता गया ।
  बैठा कर अपने मौन तले ,
   स्वयं स्वयं से मिलता गया ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

कोई टिप्पणी नहीं:

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...