564
एक उम्र तराश तलाशती रही ।
जिंदगी कुछ यूँ ख़ास सी रही ।
कटता रहा सफ़र सहर के वास्ते ,
सँग जुगनुओं के स्याह रात सी रही ।
... 565
तुम कुछ लिखते क्यों नही ।
लफ्ज़ लफ्ज़ बिकते क्यों नही ।
लगाकर जरा सा मोल अपना ,
निग़ाह में तुम टिकते क्यों नहीं ।
...566
मैं कभी कुछ लिख सका नही ।
लफ्ज़ लफ्ज़ बिक सका नही ।
लगाकर मैं कभी मोल अपना ,
निग़ाह में कभी टिक सका नहीं ।
...567
मैं धीरे धीरे बदलता गया ।
एकाकी जब चलता गया ।
बैठा कर अपने मौन तले ,
स्वयं स्वयं से मिलता गया ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
एक उम्र तराश तलाशती रही ।
जिंदगी कुछ यूँ ख़ास सी रही ।
कटता रहा सफ़र सहर के वास्ते ,
सँग जुगनुओं के स्याह रात सी रही ।
... 565
तुम कुछ लिखते क्यों नही ।
लफ्ज़ लफ्ज़ बिकते क्यों नही ।
लगाकर जरा सा मोल अपना ,
निग़ाह में तुम टिकते क्यों नहीं ।
...566
मैं कभी कुछ लिख सका नही ।
लफ्ज़ लफ्ज़ बिक सका नही ।
लगाकर मैं कभी मोल अपना ,
निग़ाह में कभी टिक सका नहीं ।
...567
मैं धीरे धीरे बदलता गया ।
एकाकी जब चलता गया ।
बैठा कर अपने मौन तले ,
स्वयं स्वयं से मिलता गया ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
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