बुधवार, 14 नवंबर 2018

मुक्तक 554/558

554
लौट चला जीवन से जीवन की और ।
सँग लेकर नव स्वप्न विहान सलोना ।
जाग चलीं अभिलाषाएं फिर कुछ ,
नवल धवल सा एक आस बिछौना ।
(विहान - भोर)
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
555
देह का आयाम है झुर्रियां ।
उम्र का विश्राम है झुर्रियां ।
 गुजरता कारवां है जिंदगी ,
बस एक मुक़ाम है झुर्रियां ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
556
छूटे कुछ पल जीवन के ,
नवजीवन की छांव तले ।
"निश्चल" मन रोपित करता ,
 आशाओं की ठाँव तले ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
557
दुनियाँ के प्रश्नों के उत्तर देते देते ।
कुछ प्रश्न अधूरे छूटे जीवन के मेरे ।
अहसासों के चलते इस अंधड़ में ,
गुवार भरे गहरे कुछ धूमिल से घेरे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
558
हर्फ़ हर्फ़ किताब सिमटता रहा ।
साथ कलम स्याह लिपटता रहा ।
रहे बंद झरोखे उस दीवार के ,
पीछे जिसके दिया टिमकता रहा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

डायरी 3

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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