शांत साँझ सुप्त निशा है ।
दिनकर भी लुप्त हुआ है ।
टूट रहे तारे भी अब अंबर से ,
अंधियारों ने अभिमान छुआ है ।
बस उठे हुए है हाथ हवा में ,
आँखों में अब नही दुआ है ।
धरती की आशाओं को ,
धीरे धीरे बैराग्य हुआ है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(3)
दिनकर भी लुप्त हुआ है ।
टूट रहे तारे भी अब अंबर से ,
अंधियारों ने अभिमान छुआ है ।
बस उठे हुए है हाथ हवा में ,
आँखों में अब नही दुआ है ।
धरती की आशाओं को ,
धीरे धीरे बैराग्य हुआ है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(3)
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