उसे देख देख वो ठहर गया ।
देकर जो यूँ कुछ नजर गया ।
दूर था कल तक निग़ाह के ,
आज धड़कन बन उतर गया ।
सजाकर महफ़िल दिल की ,
क़तरा क़तरा सा निखर गया ।
गिरा न क़तरा आँख से कभी ,
एक अश्क़ निग़ाह सँवर गया ।
करता रहा फरियाद मुंसिफ़ भी ।
दौर ज़िरह का यूँ मुकर गया ।
ग़ुम हुए हर्फ़ हर्फ़ किताबों से ,
रफ्ता रफ्ता लफ्ज़ असर गया ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें