लफ्ज़ लफ़्ज़ की एक लाचारी है ।
एक निग़ाह तुम्हारी एक हमारी है ।
ख़ामोश ख़याल ख़लिश हमारी है ।
खोती ख्वाबों को तपिश हमारी है ।
कसकती रहीं बेचैनियां अक्सर ,
तन्हाइयों से यूँ रंजिश हमारी है ।
बैठे रहे अल्फ़ाज़ भी सिमटकर ,
साज से होती नही बंदिश हमारी है ।
डुबोकर कलम अश्क़ स्याही में ,
नज़्म अल्फ़ाज़ कशिश हमारी है ।
क्या कहुँ बात मैं अब अपनी ,
निग़ाह जमाना साजिश हमारी है ।
होता रहा तर-बा-तर लफ्ज़ जो ,
वो अश्कों की बारिश हमारी है ।
ख़ामोश ख़याल रहे हर दम ही ,
एक नज़्म कहें ख्वाहिश हमारी है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 5(166)
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