खोज रहा दिन को दिनकर ,
रात गुजरती टुकड़ों में ।
लुप्त रही अरुण अरुणिमा ,
आस उतरती मुखड़ों में ।
सोई रही चन्द्र चाँदनी ,
बंद निहार रही पिजड़ों में ।
ढूंढ़ रहा खुशी खुश हो कर ,
दर्द नहीं अब दुखड़ों में ।
मिल रहा दुशाला आशाओं का ,
लिपटे कुछ तन चिथड़ों में ।
"निश्चल" रहा वो पथ पर ,
रोक रही दुनियाँ पचड़ों में ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(4)
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