दौड़ रहे हैं अश्व मन आशाओं के ।
हाथ लिए ध्वज अभिलाषाओं के ।
उड़ती रजः इच्छाओं की टापों से ।
धूमिल नभ पथ पडता पद चापों से ।
राह जटिल है लक्ष्य कठिन है ।
जूझ रहा है मन झंझावातों से ।
काट रहा उलझी राह लता बेल को ,
वो अश्व आरोही आपने ही हाथों से ।
खोज रहा एक लक्ष्य नया फिर ,
खोकर नव जीवन की चाहों में ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 5(168)
हाथ लिए ध्वज अभिलाषाओं के ।
उड़ती रजः इच्छाओं की टापों से ।
धूमिल नभ पथ पडता पद चापों से ।
राह जटिल है लक्ष्य कठिन है ।
जूझ रहा है मन झंझावातों से ।
काट रहा उलझी राह लता बेल को ,
वो अश्व आरोही आपने ही हाथों से ।
खोज रहा एक लक्ष्य नया फिर ,
खोकर नव जीवन की चाहों में ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 5(168)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें