शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

एक तस्बीर उतारी अल्फ़ाज़ की ।

601
एक तस्बीर उतारी अल्फ़ाज़ की ।
रही गुजारिश जुबां आवाज की ।

खनके नहीं तार सुरों के मचलकर ,
एक ख़ामोश शरारत रही साज की ।

देखता ही रहा असमां हसरत से ,
नियत रही परिंदा पँख परवाज़ की ।

गुजरता रहा वो चाँद आसमान से ,
गुजरती रही और रात आज की ।

न बंध सकी सुरों में यह जिंदगी ,
 कसक रही "निश्चल" रियाज़ की ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(15)

कोई टिप्पणी नहीं:

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...