अपने अपनों के बाजार निकले ।
करने को वो व्यापार निकले ।
जात धर्म के पलड़े पर ,
क़रने को विस्तार निकले ।
तौल रहे हैं मोल रहे हैं ।
कुछ रद्दी के अखवार निकले ।
कुछ वादों की परत सुनहरी ,
देने को वो उपहार निकले ।
मानवता मानव से हार रही ,
मानव मानव के गद्दार निकले ।
क्या कहे कवि कविता गढ़ ,
शब्द शब्द के पहरेदार निकले ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 5(173)
करने को वो व्यापार निकले ।
जात धर्म के पलड़े पर ,
क़रने को विस्तार निकले ।
तौल रहे हैं मोल रहे हैं ।
कुछ रद्दी के अखवार निकले ।
कुछ वादों की परत सुनहरी ,
देने को वो उपहार निकले ।
मानवता मानव से हार रही ,
मानव मानव के गद्दार निकले ।
क्या कहे कवि कविता गढ़ ,
शब्द शब्द के पहरेदार निकले ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 5(173)
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