शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

निखर चला चल , मन भीतर से ।

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निखर चला चल , मन भीतर से ।
श्रृंगारित छण बन , मन भीतर से ।

आत्म भाव गुन , मन भीतर से ।
अवचेतन धुन सुन, मन भीतर से ।

बैर रहे न , राग द्वेष रहे कोई ,
"निश्चल" बन जा , मन भीतर से ।

ज्योत जलेगी तब , अन्तर्मन में ,
प्रगट हरि जब , मन भीतर से ।

न मचल लहरों पे ।
डूब जा किनारों पे ।

कर यक़ीन इतना ,
डूबने के इरादों पे ।

मिल जाएगी मंजिल ,
छोड़ते ही सहारों  के ।

है निग़ाह तू हरदम ,
है उसके दुलारों में ।

तू आँख तो मिला ,
बस उसके नजारों से ।

.. विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(13)

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