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भृमित रहा मघुकर भी ।
उदित नहीं दिनकर भी ।
सहज चला तिमिर तले ,
पथिक रहा पथ पर ही ।
सृजन तभी कर सकता ,
चलकर आ पथ पर ही ।
सृजित सभी पथ करना ,
धरकर भीतर पग ही ।
बस चलता चल पथ पे ,
मंजिल रहे पथ पर ही ।
थककर भी ठहर नहीं ,
कलम चले "निश्चल" सी ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 5(170)
भृमित रहा मघुकर भी ।
उदित नहीं दिनकर भी ।
सहज चला तिमिर तले ,
पथिक रहा पथ पर ही ।
सृजन तभी कर सकता ,
चलकर आ पथ पर ही ।
सृजित सभी पथ करना ,
धरकर भीतर पग ही ।
बस चलता चल पथ पे ,
मंजिल रहे पथ पर ही ।
थककर भी ठहर नहीं ,
कलम चले "निश्चल" सी ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 5(170)
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