बुधवार, 14 नवंबर 2018

मुक्तक 559/561

559
हर दिन गुजर जाता रहा ।
कुछ कहकर जाता रहा।
कुछ पा जाने की आशा में ,
कुछ शेष बिखर जाता रहा ।
...
560
 नज़र रहा कुछ बे-नजर आता रहा ।
हर्फ़ अल्फ़ाज़ क्युं बे-खबर जाता रहा ।
रहा खंजर वक़्त हालात के हाथों में ,
एक ज़ख्म दिल ये ज़िगर पाता रहा ।
...
561
नेकनीयत चल चलता रहा ।
हालातो में ढल ढलता रहा ।
बदल जाएंगे एक दिन ये ,
नाकामी का पल पलता रहा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 3

कोई टिप्पणी नहीं:

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...