साँझ के आगोश में खो गया वो ।
लो सूरज भी बे-वफ़ा हो गया वो ।
...
चले उजाले हर दफ़ा साथ जिसके ,
अँधेरों से मिलाता फिर भी नैन वो ।
.....
न रहा छुपकर कभी अँधेरों में जो ,
अपने ही उजालों से क्यों बैचेन वो ।
....
निखरा तपकर अपनी तपिश से जो ,
एक साँझ की ख़ातिर ढलने बैचेन वो ।
....
दिखाता उजले रास्ते दुनियाँ को जो ,
एक छाँव से खुदको लगाता ग्रहण वो ।
...
ख़ातिर जिसकी खोता नही चैन जो ।
ख़ातिर उसकी क्यों इतना बैचेन वो।
.....
.....विवेक दुबे "निश्चल"@..
लो सूरज भी बे-वफ़ा हो गया वो ।
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चले उजाले हर दफ़ा साथ जिसके ,
अँधेरों से मिलाता फिर भी नैन वो ।
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न रहा छुपकर कभी अँधेरों में जो ,
अपने ही उजालों से क्यों बैचेन वो ।
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निखरा तपकर अपनी तपिश से जो ,
एक साँझ की ख़ातिर ढलने बैचेन वो ।
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दिखाता उजले रास्ते दुनियाँ को जो ,
एक छाँव से खुदको लगाता ग्रहण वो ।
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ख़ातिर जिसकी खोता नही चैन जो ।
ख़ातिर उसकी क्यों इतना बैचेन वो।
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.....विवेक दुबे "निश्चल"@..
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