रूह जहाँ मिल जातीं हैं ,
ज़िस्म खुदा हो जाते हैं ।
अहसासों के साए में ,
जज़्बात जवां हो जाते हैं ।
रूह जहाँ रुक जाती है ।
लफ्ज़ दुआ हो जाते हैं ।
निग़ाह झुका कर भी ,
वहाँ सज़दे हो जाते हैं ।
रूह जहाँ खो जाती है ।
चाह फ़ना हो जाती है ।
गिरता जो फिर सज़दे में,
निग़ाह तर हो जाती है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
ज़िस्म खुदा हो जाते हैं ।
अहसासों के साए में ,
जज़्बात जवां हो जाते हैं ।
रूह जहाँ रुक जाती है ।
लफ्ज़ दुआ हो जाते हैं ।
निग़ाह झुका कर भी ,
वहाँ सज़दे हो जाते हैं ।
रूह जहाँ खो जाती है ।
चाह फ़ना हो जाती है ।
गिरता जो फिर सज़दे में,
निग़ाह तर हो जाती है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें