बुधवार, 21 मार्च 2018

उजड़ता गया

उजड़ता गया  शहर पुरानों सा ।
 चलता गया एक अनजानों सा ।

 सोख कर अपनी ही नमी को ,
 रिसता रहा मकान पुरानों सा ।

 तंग नही गलियाँ शहर की मेरे ,
 रास्ता मिलता नही ठिकानों का ।

 तंग दिल नही है लोग मेरे वास्ते ,
 थामे हर शख़्स दामन बहानों का ।

 जानता सारा शहर यूँ तो "निश्चल",
 मोहताज़ है आज भी पहचानों का ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

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