बस इतनी सी जुस्तजू (खोज)है ।
मुझे लफ्ज़ की आरजू (कामना)है ।
लफ्ज़ बन सँग किताबों के हम हुए ।
दफ़न किताबों में कुछ यूँ हम हुए ।
दूरियाँ नही दरमियाँ के,
अहसास खामोशियों के ।
सजती रही महफ़िल ,
बिन शमा रोशनियों के ।
सबब परेशानियों का ,फ़क़त इतना रहा ।
तू परेशां न रहा , मैं भी परेशां न रहा ।
उतरे वीरानों में ,चैन की खातिर हम ।
देखा वीरानों में बैचेनी बिखरी पड़ी है ।
.... विवेक दुबे "निश्चल"@.....
मुझे लफ्ज़ की आरजू (कामना)है ।
लफ्ज़ बन सँग किताबों के हम हुए ।
दफ़न किताबों में कुछ यूँ हम हुए ।
दूरियाँ नही दरमियाँ के,
अहसास खामोशियों के ।
सजती रही महफ़िल ,
बिन शमा रोशनियों के ।
सबब परेशानियों का ,फ़क़त इतना रहा ।
तू परेशां न रहा , मैं भी परेशां न रहा ।
उतरे वीरानों में ,चैन की खातिर हम ।
देखा वीरानों में बैचेनी बिखरी पड़ी है ।
.... विवेक दुबे "निश्चल"@.....
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