बुधवार, 21 मार्च 2018

शब्द गिरे हैं कट कटकर

शब्द गिरे है कट कट कर , 
कविता लहूलुहान पड़ी ।
 इंसानो की बस्ती में ,
 यह कैसी आग लगी ।

     धूमिल हुई भावनाएँ सारी ,
    सूखी अर्थो की फुलवारी ।
    अर्थ अर्थ के अर्थ बदलते ,
    शब्दों से शब्दों की लाचारी ।

मन हुये मरू वन जैसे ,
दिल में भी बहार नहीं ,
गुलशन को गुल से ,
 क्यों अब प्यार नहीं ।

       इंसानों की बस्ती में,
     यह कैसी आग लगी ।

अपनों ने अपनों को ,
 शब्दों से ही भरमाया  ।
शब्द वही पर अर्थ नया ,
हर बार निकल कर आया  ।

       सूखे रिश्ते टूटे नाते ,
        रिश्तों का मान नहीं ।
        रिश्तों की नातों से अब ,
        पहले सी पहचान नही ।

   शब्द गिरे है कट कट कर,
   कविता लहूलुहान पड़ी ।
   इंसानो की बस्ती में ,
    यह कैसी आग लगी। .

         ...विवेक दुबे"निश्चल"@...

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