शब्द गिरे है कट कट कर ,
कविता लहूलुहान पड़ी ।
इंसानो की बस्ती में ,
यह कैसी आग लगी ।
धूमिल हुई भावनाएँ सारी ,
सूखी अर्थो की फुलवारी ।
अर्थ अर्थ के अर्थ बदलते ,
शब्दों से शब्दों की लाचारी ।
मन हुये मरू वन जैसे ,
दिल में भी बहार नहीं ,
गुलशन को गुल से ,
क्यों अब प्यार नहीं ।
इंसानों की बस्ती में,
यह कैसी आग लगी ।
अपनों ने अपनों को ,
शब्दों से ही भरमाया ।
शब्द वही पर अर्थ नया ,
हर बार निकल कर आया ।
सूखे रिश्ते टूटे नाते ,
रिश्तों का मान नहीं ।
रिश्तों की नातों से अब ,
पहले सी पहचान नही ।
शब्द गिरे है कट कट कर,
कविता लहूलुहान पड़ी ।
इंसानो की बस्ती में ,
यह कैसी आग लगी। .
...विवेक दुबे"निश्चल"@...
कविता लहूलुहान पड़ी ।
इंसानो की बस्ती में ,
यह कैसी आग लगी ।
धूमिल हुई भावनाएँ सारी ,
सूखी अर्थो की फुलवारी ।
अर्थ अर्थ के अर्थ बदलते ,
शब्दों से शब्दों की लाचारी ।
मन हुये मरू वन जैसे ,
दिल में भी बहार नहीं ,
गुलशन को गुल से ,
क्यों अब प्यार नहीं ।
इंसानों की बस्ती में,
यह कैसी आग लगी ।
अपनों ने अपनों को ,
शब्दों से ही भरमाया ।
शब्द वही पर अर्थ नया ,
हर बार निकल कर आया ।
सूखे रिश्ते टूटे नाते ,
रिश्तों का मान नहीं ।
रिश्तों की नातों से अब ,
पहले सी पहचान नही ।
शब्द गिरे है कट कट कर,
कविता लहूलुहान पड़ी ।
इंसानो की बस्ती में ,
यह कैसी आग लगी। .
...विवेक दुबे"निश्चल"@...
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