रविवार, 18 मार्च 2018

कुछ ख़्याल मेरे

मुसाफ़िर हमसे कहा राह पाते है ।
 हम जुगनूं रातों को टिमटिमाते है  ।
   ..
लाभ हानि के खाते , लिखते सब ।
 लोग नही मिलते ,  बे-मतलब अब ।
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 फूल सा जो महकता सा रहा है ।
  यूँ वो रिश्ता वा-खूब सा रहा है ।
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अक़्स पर अक़्स चढ़ाया उसने ।
 खुद को बा-खूब सजाया उसने ।
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   ज़िन्दगी भी , एक किताब है ।
   दो लाइन का, बस हिसाब है ।
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कुछ लिखें अपना , कुछ कहें अपना।
 सत्य नही ज़ीवन , ज़ीवन एक सपना।
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   ज़ीवन की बस , इतनी परिभाषा है। 
    ज़ीवन तो बस , कटता ही जाता है। 
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पतझड़ नही वसंत हो ज़िंदगी ।
 अन्त नही आरम्भ हो ज़िंदगी ।
  ...
 तारा टूटा फ़लक से जमीं नसीब न थी ।
ख़ाक हुआ हवा में मुफ़लिसी केसी थी ।।
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 तपता रहा उम्र भर , कुंदन सा हो गया ।
 भाया न दुनियाँ को , खुद भी खो गया ।
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पथिक थक जाएगा ,मंजिल पा जाएगा ।
 छोड़े पद चिन्हों का,इतिहास बनाएगा ।
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होता रहता है हरदम , कुछ न कुछ।
 वक़्त सीखाता है हरदम , बहुत कुछ।
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यह सफर विकल्प से , संकल्प तक का ।
 लगता सारा जीवन , सफर दो पग का।
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दिए जले जो रातों को ,
                  खोजते अहसासों को ।
  जलाकर अपनी बाती ,
                    टटोलते अँधियारों को ।

   ...... विवेक दुबे "निश्चल"@....

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