बुधवार, 21 मार्च 2018

इंसान वही जो चल पड़ता है ।।।

इंसान वही जो चल पड़ता है ।
पाषाण वही जो धरा गढ़ता है ।
 पा जाने धरती की चाहत को ।
दूर क्षितिज भी अंबर झुकता है ।

भोर साँझ आधा दामन बांटे ,
 सूरज जिस बीच मचलता है ।
 एक साँझ निशा की ख़ातिर ,
 सूरज भी अस्तांचल चलता है ।

 जीवन कहीं राह रुका नही,
 राह विपत्ति में भी गढ़ता है ।
 थम जाएँ क़दम कहीं कभी ,
 ज़ीवन तो फिर भी चलता है ।

 साहिल की चाहत में हरदम ,
 सागर ही खुद ऊपर उठता है ।
 तारे छाए "निश्चल" अंबर पर ,
 मिलने चँदा साँझ निकलता है ।

इंसान वही जो चल पड़ता है ।
पाषाण वही जो धरा गढ़ता है ।
 पा जाने धरती की चाहत को ।
दूर क्षितिज भी अंबर झुकता है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

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