इंसान वही जो चल पड़ता है ।
पाषाण वही जो धरा गढ़ता है ।
पा जाने धरती की चाहत को ।
दूर क्षितिज भी अंबर झुकता है ।
भोर साँझ आधा दामन बांटे ,
सूरज जिस बीच मचलता है ।
एक साँझ निशा की ख़ातिर ,
सूरज भी अस्तांचल चलता है ।
जीवन कहीं राह रुका नही,
राह विपत्ति में भी गढ़ता है ।
थम जाएँ क़दम कहीं कभी ,
ज़ीवन तो फिर भी चलता है ।
साहिल की चाहत में हरदम ,
सागर ही खुद ऊपर उठता है ।
तारे छाए "निश्चल" अंबर पर ,
मिलने चँदा साँझ निकलता है ।
इंसान वही जो चल पड़ता है ।
पाषाण वही जो धरा गढ़ता है ।
पा जाने धरती की चाहत को ।
दूर क्षितिज भी अंबर झुकता है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
पाषाण वही जो धरा गढ़ता है ।
पा जाने धरती की चाहत को ।
दूर क्षितिज भी अंबर झुकता है ।
भोर साँझ आधा दामन बांटे ,
सूरज जिस बीच मचलता है ।
एक साँझ निशा की ख़ातिर ,
सूरज भी अस्तांचल चलता है ।
जीवन कहीं राह रुका नही,
राह विपत्ति में भी गढ़ता है ।
थम जाएँ क़दम कहीं कभी ,
ज़ीवन तो फिर भी चलता है ।
साहिल की चाहत में हरदम ,
सागर ही खुद ऊपर उठता है ।
तारे छाए "निश्चल" अंबर पर ,
मिलने चँदा साँझ निकलता है ।
इंसान वही जो चल पड़ता है ।
पाषाण वही जो धरा गढ़ता है ।
पा जाने धरती की चाहत को ।
दूर क्षितिज भी अंबर झुकता है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
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