सोमवार, 19 मार्च 2018

वर्तमान

विषय.... *वर्तमान*


डरता हूँ कभी कभी डर जाता हूँ मैं ,
 दर्पण में अपने बिंबित प्रतिबिंब से ।
 चकित होता हूँ हाँ चकित होता मैं ,
 उभरते बढ़ती उम्र के हर चिन्ह से ।
 सोचता फिर अगले ही पल मैं ,
 परिवर्तन ही प्रकृति का नियम ,
 लागू होता है यह मुझ पर भी ।
 लड़ न सका कोई प्रकृति से ।
 समेट लेती वापस धीरे धीरे ,
 गर्भ में अपने अपनी गति से ।
 उदय और अस्त दिन और रात ,
 यह भी तो चलते इसी गति से ।
 अस्त हो उदय होना मुझे भी ,
 नियति की इस सतत गति से ।
 प्रकृति भी चलती प्रकृति से ।
 हटा सामने से दर्पण अपने ,
 चल पड़ता वर्तमान में ,
   मैं अपनी गति से ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"©...

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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