गुरुवार, 22 मार्च 2018

राज खुले जो धीरे धीरे

राज खुले जो धीरे धीरे ,
चलता नदिया तीरे तीरे ।

     छूना चाहे लहरों को ,
     हाथ फैले रीते रीते । 

  चाह छुअन शीतल जल की,
  बुझे मन अंगारों की पीरें।

     उन कदमों की आहट से  ,
      बनतीं हैं कुछ तस्वीरें । 

 विम्ब उभरता "निश्चल" जल में ,
 झलकीं धुँधली कुछ तस्वीरें ।

       कुछ खुशियाँ गैरो सी ,
        कुछ अपनी ही पीरें।

  गिरे अश्रु कण जल में , 
   मिटती सब तस्वीरें ।

        चलता नदिया तीरे तीरे,
        हाथ फैलाए धीरे धीरे ।

 चलना ही नियति जैसे ,
 चलता है सँग लिए पीरें ।

       ... विवेक दुबे"निश्चल"@..

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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