रंग तजे वसुधा ने भी ,
बदले रंग जो बादल ने ।
समेट लिया बस मरुवन ही,
धरती ने अपने आँचल में ।
तप्त धरा है बैचेन हवा है ,
शीतलता नही फिजाओं में ।
चलता अब अंगारों पर मानव ,
अपनी ही रची गुफाओं में ।
पीकर जल अपनी माँ के आँचल का ,
जाता अब अनन्त दिशाओं में ,
खोज रहा आज अंतरिक्ष में ,
जल कण सूखे ग्रह शिराओं में ।
विस्तृत होता पल पल अनन्त अंतरिक्ष ,
सिकुड़ा मानव अपनी ही आशाओं में ।
चूस लिया कण कण भू जल ,
अपनी माता की शिराओं से ।
जा तू अब कहाँ बसेगा ,
अनन्त काल से घूम रही उल्काओं में ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
बदले रंग जो बादल ने ।
समेट लिया बस मरुवन ही,
धरती ने अपने आँचल में ।
तप्त धरा है बैचेन हवा है ,
शीतलता नही फिजाओं में ।
चलता अब अंगारों पर मानव ,
अपनी ही रची गुफाओं में ।
पीकर जल अपनी माँ के आँचल का ,
जाता अब अनन्त दिशाओं में ,
खोज रहा आज अंतरिक्ष में ,
जल कण सूखे ग्रह शिराओं में ।
विस्तृत होता पल पल अनन्त अंतरिक्ष ,
सिकुड़ा मानव अपनी ही आशाओं में ।
चूस लिया कण कण भू जल ,
अपनी माता की शिराओं से ।
जा तू अब कहाँ बसेगा ,
अनन्त काल से घूम रही उल्काओं में ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
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