शुक्रवार, 23 मार्च 2018

खोज रहा जल कण

रंग तजे वसुधा ने भी ,
बदले  रंग जो बादल ने ।
समेट लिया बस मरुवन ही,
धरती ने अपने आँचल में ।
 तप्त धरा है बैचेन हवा है ,
 शीतलता नही फिजाओं में ।
 चलता अब अंगारों पर मानव ,
अपनी ही रची गुफाओं में ।
 पीकर जल अपनी माँ के आँचल का ,
 जाता अब अनन्त दिशाओं में ,
 खोज रहा आज अंतरिक्ष में ,
 जल कण सूखे ग्रह शिराओं में ।
 विस्तृत होता पल पल अनन्त अंतरिक्ष ,
 सिकुड़ा मानव अपनी ही आशाओं में ।
 चूस लिया कण कण भू जल ,
 अपनी माता की शिराओं से ।
 जा तू अब कहाँ बसेगा ,
  अनन्त काल से घूम रही उल्काओं में ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...



कोई टिप्पणी नहीं:

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...