शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018

मुक्तक सामयिक 2

वो हर मौत से मज़हब जोड़ते हैं ।
 यूँ वो धर्म से मज़हब जोड़ते हैं ।
 करते हैं राजनीति हर मौत पर,
 मुर्दों में यूँ सियासत खोजते हैं ।
  .....
 मरते रहे लाल भारत के भाल पे ।
 बस एक मातृ भूमि के सवाल पे ।
 भला क्या जाने वो आन देश की ,
 चलते रहे हैं जो थैले सम्हाल के ।
... 
सिंदूर उजड़ते , सूनी राखी ।
 सूनी कोख , छाया की लाचारी ।
 कुटिल नीतियाँ सत्ता की ।
 सैनिक की छाती गोली खाती ।
 .... 
  नैतिकता पढ़ी कभी किताबों में ।
  नैतिकता मिलती नही बाज़ारों में ।
  सुनते आए किस्से बड़े सयानों से,
 यह मिलती घर आँगन चौवरो में ।
  ......
आज फिर मुद्दों के कुछ भूचाल उठे ।
आरक्षण कहीं मज़हब के भाल उठे ।
 खोतीं मर्यादाएँ फिर सारी की सारी ,
 बे-कसूर के आज फिर शीश कटे ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

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