शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018

मुक्तक सामयिक


वही हुआ जिसका डर था ।
 प्यादे का बड़ा असर था ।
 शह खा बैठा प्यादे से वो ,
 चालों का जो माहिर था ।
... 
आज बदले से हालात हैं ।
 नही  रंग-ऐ-ज़ज्बात हैं ।
 धर्म मजहब के नाम पर ,
 बंट रहा वो लहू , जो साथ है ।
.... 
भागती हर गली सड़क मेरे शहर की ।
 बदली कुछ यूँ नियत मेरे शहर की ।
 छूटते अब हाथ से हाथ हाथ के ,
  उठतीं थीं बाहों में बाहँ विश्वास की ।
 ... ..
वो भीड़ का बवंडर कैसा था ।
 मेरे शहर का मंज़र कैसा था ।
 था रंग लहू का एक सा सभी ,
 फिर यह लहू किसने फेंका था ।
 .....
 धर्म बिसात पर पांसा जात खेला था ।
  बहा फिर जो लहू वो नहीं अकेला था।
   ले गया संग बहाकर जो बहुत कुछ,
   वो सब कुछ अपनों का मेला था ।
    ...
 सांप निकल गया अब क्या होगा ।
 पीछे लाठी पीटे अब क्या होगा ।
 देश बंट चुका जात मजहब में ,
 खोखले वादों से अब क्या होगा ।
.....
किस किस के नक़ाब उतारोगे ।
 अपनों को ही गैरत से मारोगे ।
 लगा मुखोटे बैठे सिंहासन पर ,
 तुम अपनों से ही फिर हारोगे । 
..... 

  ... विवेक दुबे"निश्चल"@.

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