वही हुआ जिसका डर था ।
प्यादे का बड़ा असर था ।
शह खा बैठा प्यादे से वो ,
चालों का जो माहिर था ।
...
आज बदले से हालात हैं ।
नही रंग-ऐ-ज़ज्बात हैं ।
धर्म मजहब के नाम पर ,
बंट रहा वो लहू , जो साथ है ।
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भागती हर गली सड़क मेरे शहर की ।
बदली कुछ यूँ नियत मेरे शहर की ।
छूटते अब हाथ से हाथ हाथ के ,
उठतीं थीं बाहों में बाहँ विश्वास की ।
... ..
वो भीड़ का बवंडर कैसा था ।
मेरे शहर का मंज़र कैसा था ।
था रंग लहू का एक सा सभी ,
फिर यह लहू किसने फेंका था ।
.....
धर्म बिसात पर पांसा जात खेला था ।
बहा फिर जो लहू वो नहीं अकेला था।
ले गया संग बहाकर जो बहुत कुछ,
वो सब कुछ अपनों का मेला था ।
...
सांप निकल गया अब क्या होगा ।
पीछे लाठी पीटे अब क्या होगा ।
देश बंट चुका जात मजहब में ,
खोखले वादों से अब क्या होगा ।
.....
किस किस के नक़ाब उतारोगे ।
अपनों को ही गैरत से मारोगे ।
लगा मुखोटे बैठे सिंहासन पर ,
तुम अपनों से ही फिर हारोगे ।
.....
... विवेक दुबे"निश्चल"@.
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