वही हुआ जिसका डर था ।
प्यादे का बड़ा असर था ।
शह खा बैठा प्यादे से वो ,
चालों का जो माहिर था ।
...
आज बदले से हालात हैं ।
नही रंग-ऐ-ज़ज्बात हैं ।
धर्म मजहब के नाम पर ,
बंट रहा वो लहू , जो साथ है ।
....
भागती हर गली सड़क मेरे शहर की ।
बदली कुछ यूँ नियत मेरे शहर की ।
छूटते अब हाथ से हाथों हाथ के ,
उठतीं थीं बाहों में बाहँ विश्वास की ।
... ..
वो भीड़ का बवंडर कैसा था ।
मेरे शहर का मंज़र कैसा था ।
था रंग लहू का एक सा सभी ,
फिर यह लहू किसने फेंका था ।
.....
धर्म बिसात पर पांसा जात का खेला था ।
बहा फिर जो लहू वो नहीं अकेला था।
ले गया संग बहाकर जो बहुत कुछ,
वो सब कुछ अपनों का मेला था ।
...
जब जब उसमे दोस्त देखा ।
तब तब उसने ख़ंजर फेका ।
जख्म दिए हैं गहरे गहरे से ,
वो ना-पाक नियत है कैसा ।
...
अब क्या समझे क्या समझाएं ।
अब तो आर पार ही हो जाए ।
मरते है अब आम नागरिक भी ,
रात अँधेरे गोली गोले चल जाए ।
.....
होने को बहुत कुछ होता है ।
जो दिखता वो कहाँ होता है ।
छला जाता जन हर बार ही ,
जो होता है वो कहाँ होता है ।
....
वो मरहम लगाने आए हैं ।
ज़ख्म कुदेरने आए हैं ।
भीड़ है गाँव मे बहुत मेरे ,
फिर चुनाव के जमाने आए हैं ।
....
सांप निकल गया अब क्या होगा ।
पीछे लाठी पीटे अब क्या होगा ।
देश बंट चुका जात मजहब में ,
खोखले वादों से अब क्या होगा ।
...
आज फिर मुद्दों के कुछ भूचाल उठे ।
आरक्षण कहीं मज़हब के भाल उठे ।
खोतीं मर्यादाएँ फिर सारी की सारी ,
बे-कसूर के आज फिर शीश कटे ।
....
चलते चालें कुटिल नीत की ,
कलजुग का प्रताप निराला ।
चारों ओर जयकारे उनके ,
हाथों में फरेब का प्याला ।
...
किस किस के नक़ाब उतारोगे ।
अपनों को ही गैरत से मारोगे ।
लगा मुखोटे बैठे सिंहासन पर ,
तुम अपनों से ही फिर हारोगे ।
.....
चुप रहो ख़ामोश रहो ।
दोषी को निर्दोष कहो ।
असत्य सत्य जो जाए ,
सत्य कैसे तब सिद्ध करो ।
...
जुर्म व्यापार हुआ ।
फ़र्ज़ दाग़दार हुआ ।
बैठा हुआ सड़क पर,
ईमान जार जार हुआ ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
Blog post 16/4/18
प्यादे का बड़ा असर था ।
शह खा बैठा प्यादे से वो ,
चालों का जो माहिर था ।
...
आज बदले से हालात हैं ।
नही रंग-ऐ-ज़ज्बात हैं ।
धर्म मजहब के नाम पर ,
बंट रहा वो लहू , जो साथ है ।
....
भागती हर गली सड़क मेरे शहर की ।
बदली कुछ यूँ नियत मेरे शहर की ।
छूटते अब हाथ से हाथों हाथ के ,
उठतीं थीं बाहों में बाहँ विश्वास की ।
... ..
वो भीड़ का बवंडर कैसा था ।
मेरे शहर का मंज़र कैसा था ।
था रंग लहू का एक सा सभी ,
फिर यह लहू किसने फेंका था ।
.....
धर्म बिसात पर पांसा जात का खेला था ।
बहा फिर जो लहू वो नहीं अकेला था।
ले गया संग बहाकर जो बहुत कुछ,
वो सब कुछ अपनों का मेला था ।
...
जब जब उसमे दोस्त देखा ।
तब तब उसने ख़ंजर फेका ।
जख्म दिए हैं गहरे गहरे से ,
वो ना-पाक नियत है कैसा ।
...
अब क्या समझे क्या समझाएं ।
अब तो आर पार ही हो जाए ।
मरते है अब आम नागरिक भी ,
रात अँधेरे गोली गोले चल जाए ।
.....
होने को बहुत कुछ होता है ।
जो दिखता वो कहाँ होता है ।
छला जाता जन हर बार ही ,
जो होता है वो कहाँ होता है ।
....
वो मरहम लगाने आए हैं ।
ज़ख्म कुदेरने आए हैं ।
भीड़ है गाँव मे बहुत मेरे ,
फिर चुनाव के जमाने आए हैं ।
....
सांप निकल गया अब क्या होगा ।
पीछे लाठी पीटे अब क्या होगा ।
देश बंट चुका जात मजहब में ,
खोखले वादों से अब क्या होगा ।
...
आज फिर मुद्दों के कुछ भूचाल उठे ।
आरक्षण कहीं मज़हब के भाल उठे ।
खोतीं मर्यादाएँ फिर सारी की सारी ,
बे-कसूर के आज फिर शीश कटे ।
....
चलते चालें कुटिल नीत की ,
कलजुग का प्रताप निराला ।
चारों ओर जयकारे उनके ,
हाथों में फरेब का प्याला ।
...
किस किस के नक़ाब उतारोगे ।
अपनों को ही गैरत से मारोगे ।
लगा मुखोटे बैठे सिंहासन पर ,
तुम अपनों से ही फिर हारोगे ।
.....
चुप रहो ख़ामोश रहो ।
दोषी को निर्दोष कहो ।
असत्य सत्य जो जाए ,
सत्य कैसे तब सिद्ध करो ।
...
जुर्म व्यापार हुआ ।
फ़र्ज़ दाग़दार हुआ ।
बैठा हुआ सड़क पर,
ईमान जार जार हुआ ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
Blog post 16/4/18
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