सोमवार, 16 अप्रैल 2018

फँसता ही जाता

फँसता जाता ही मैं प्रपंचों में ।
 भरता जाता हलाहल कंठो में । 
 विचित्र वेदना है मन पंक्षी की ,
  मन उलझा ज़ीवन के फंदों में ।
 .... विवेक दुबे"निश्चल"@....

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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