35
मेरे अश्क़ सामने गिरे मेरे अपनों के ही ।
मुस्कुराहट गेरों में वफ़ा तलाशती रही ।
.36
वो ज़मीं थी हरी भरी , मैं आसमाँ वीरान था ।
कलरव थे दामन में उसके, मैं ख़ामोश सुनसान था ।
37
शब्दो के सफर में हम सब मुसाफ़िर है ।
तलाश मंजिल की ज़िंदगी गुजर जाती है ।
38
न समझ सका मैं वक़्त के मिजाज को ।
एक कल की खातिर भूलता आज को ।
39
कहला सका न आदमी वो कभी ,
वो भी तो आखिर एक इंसान था ।
40
"निश्चल" चला न चाह में जिसकी ,
मंजिल न थी दूर सामने जहान था ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@....
18/4/18
डायरी 3
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