बुधवार, 18 अप्रैल 2018

शेर 35 से 40


  35
मेरे अश्क़ सामने गिरे मेरे अपनों के ही ।
 मुस्कुराहट गेरों में वफ़ा तलाशती रही ।
.36
 वो ज़मीं थी हरी भरी , मैं आसमाँ वीरान था ।
 कलरव थे दामन में उसके, मैं ख़ामोश सुनसान था ।
37
शब्दो के सफर में हम सब मुसाफ़िर है ।
तलाश मंजिल की ज़िंदगी गुजर जाती है ।
38
न समझ सका मैं वक़्त के मिजाज को ।
एक कल की खातिर भूलता आज को ।
39
 कहला सका न आदमी वो कभी ,
 वो भी तो आखिर एक इंसान था ।
40
"निश्चल" चला न चाह में   जिसकी ,
 मंजिल न थी दूर सामने जहान था ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@....
 18/4/18
डायरी 3

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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