मुक़ाम बहुत है शहर में मेरे ।
क़याम न हुआ मगर कोई ।
उजड़ रहा है मेरे शहर से ,
चैन-ओ-शुकूँ गोई ।
....
अपनो की इस भीड़ में ,
तन्हा नही कभी कोई ।
कमी इस बात की,
के,अपना चुना नही कोई ।
...
कुसूर बस इतना रहा ।
बे-कुसूर मैं अदना रहा ।
न बढ़ा क़द फ़रेब का ,
सच तले मैं चलता रहा ।
....
वो नुक़्स निकालता रहा ।
मैं ख़ुद को सम्हालता रहा ।
उतारकर शीशे में ख़ुद को,
मैं संग से सम्हालता रहा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"©....
क़याम न हुआ मगर कोई ।
उजड़ रहा है मेरे शहर से ,
चैन-ओ-शुकूँ गोई ।
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अपनो की इस भीड़ में ,
तन्हा नही कभी कोई ।
कमी इस बात की,
के,अपना चुना नही कोई ।
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कुसूर बस इतना रहा ।
बे-कुसूर मैं अदना रहा ।
न बढ़ा क़द फ़रेब का ,
सच तले मैं चलता रहा ।
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वो नुक़्स निकालता रहा ।
मैं ख़ुद को सम्हालता रहा ।
उतारकर शीशे में ख़ुद को,
मैं संग से सम्हालता रहा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"©....
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